Sunday, April 25, 2010




चलता था-धीरे-धीरे

वह एक यात्रियों का दल,

सरिता के रम्य पुलिन में

गिरिपथ से, ले निज संबल।


या सोम लता से आवृत वृष

धवल, धर्म का प्रतिनिधि,

घंटा बजता तालों में

उसकी थी मंथर गति-विधि।


वृष-रज्जु वाम कर में था

दक्षिण त्रिशूल से शोभित,

मानव था साथ उसी के

मुख पर था तेज़ अपरिमित।


केहरि-किशोर से अभिनव

अवयव प्रस्फुटित हुए थे,

यौवन गम्भीर हुआ था

जिसमें कुछ भाव नये थे।


चल रही इड़ा भी वृष के

दूसरे पार्श्व में नीरव,

गैरिक-वसना संध्या सी

जिसके चुप थे सब कलरव।


उल्लास रहा युवकों का

शिशु गण का था मृदु कलकल।

महिला-मंगल गानों से

मुखरित था वह यात्री दल।


चमरों पर बोझ लदे थे

वे चलते थे मिल आविरल,

कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर

अपने ही बने कुतूहल।


माताएँ पकडे उनको

बातें थीं करती जातीं,

'हम कहाँ चल रहे' यह सब

उनको विधिवत समझातीं।


कह रहा एक था" तू तो

कब से ही सुना रही है

अब आ पहुँची लो देखो

आगे वह भूमि यही है।


पर बढती ही चलती है

रूकने का नाम नहीं है,

वह तीर्थ कहाँ है कह तो

जिसके हित दौड़ रही है।"


"वह अगला समतल जिस पर

है देवदारू का कानन,

घन अपनी प्याली भरते ले

जिसके दल से हिमकन।


हाँ इसी ढालवें को जब बस

सहज उतर जावें हम,

फिर सन्मुख तीर्थ मिलेगा

वह अति उज्ज्वल पावनतम"


वह इड़ा समीप पहुँच कर

बोला उसको रूकने को,

बालक था, मचल गया था

कुछ और कथा सुनने को।


वह अपलक लोचन अपने

पादाग्र विलोकन करती,

पथ-प्रदर्शिका-सी चलती

धीरे-धीरे डग भरती।


बोली, "हम जहाँ चले हैं

वह है जगती का पावन

साधना प्रदेश किसी का

शीतल अति शांत तपोवन।"


"कैसा? क्यों शांत तपोवन?

विस्तृत क्यों न बताती"

बालक ने कहा इडा से

वह बोली कुछ सकुचाती


"सुनती हूँ एक मनस्वी था

वहाँ एक दिन आया,

वह जगती की ज्वाला से

अति-विकल रहा झुलसाया।


उसकी वह जलन भयानक

फैली गिरि अंचल में फिर,

दावाग्नि प्रखर लपटों ने

कर लिया सघन बन अस्थिर।


थी अर्धांगिनी उसी की

जो उसे खोजती आयी,

यह दशा देख, करूणा की

वर्षा दृग में भर लायी।


वरदान बने फिर उसके आँसू,

करते जग-मंगल,

सब ताप शांत होकर,

बन हो गया हरित, सुख शीतल।


गिरि-निर्झर चले उछलते

छायी फिर हरियाली,

सूखे तरू कुछ मुसकराये

फूटी पल्लव में लाली।


वे युगल वहीं अब बैठे

संसृति की सेवा करते,

संतोष और सुख देकर

सबकी दुख ज्वाला हरते।


हैं वहाँ महाह्नद निर्मल

जो मन की प्यास बुझाता,

मानस उसको कहते हैं

सुख पाता जो है जाता।


"तो यह वृष क्यों तू यों ही

वैसे ही चला रही है,

क्यों बैठ न जाती इस पर

अपने को थका रही है?"


"सारस्वत-नगर-निवासी

हम आये यात्रा करने,

यह व्यर्थ, रिक्त-जीवन-घट

पीयूष-सलिल से भरने।


इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को

उत्सर्ग करेंगे जाकर,

चिर मुक्त रहे यह निर्भय

स्वच्छंद सदा सुख पाकर।"


सब सम्हल गये थे

आगे थी कुछ नीची उतराई,

जिस समतल घाटी में,

वह थी हरियाली से छाई।


श्रम, ताप और पथ पीडा

क्षण भर में थे अंतर्हित,

सामने विराट धवल-नग

अपनी महिमा से विलसित।


उसकी तलहटी मनोहर

श्यामल तृण-वीरूध वाली,

नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर

ह्रद से भर रही निराली।


वह मंजरियों का कानन

कुछ अरूण पीत हरियाली,

प्रति-पर्व सुमन-सुंकुल थे

छिप गई उन्हीं में डाली।


यात्री दल ने रूक देखा

मानस का दृश्य निराला,

खग-मृग को अति सुखदायक

छोटा-सा जगत उजाला।


मरकत की वेदी पर ज्यों

रक्खा हीरे का पानी,

छोटा सा मुकुर प्रकृति

या सोयी राका रानी।


दिनकर गिरि के पीछे अब

हिमकर था चढा गगन में,

कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर

बैठा किसी लगन में।


संध्या समीप आयी थी

उस सर के, वल्कल वसना,

तारों से अलक गुँथी थी

पहने कदंब की रशना।


खग कुल किलकार रहे थे,

कलहंस कर रहे कलरव,

किन्नरियाँ बनी प्रतिध्वनि

लेती थीं तानें अभिनव।


मनु बैठे ध्यान-निरत थे

उस निर्मल मानस-तट में,

सुमनों की अंजलि भर कर

श्रद्धा थी खडी निकट में।


श्रद्धा ने सुमन बिखेरा

शत-शत मधुपों का गुंजन,

भर उठा मनोहर नभ में

मनु तन्मय बैठे उन्मन।


पहचान लिया था सबने

फिर कैसे अब वे रूकते,

वह देव-द्वंद्व द्युतिमय था

फिर क्यों न प्रणति में झुकते।


Tuesday, April 20, 2010

It is really difficult to understand the way of propagation of yoga in modern life without understand its holistic approach to all directions in life. Question remains here - yoga is answer of every question or some specified questions.
I got a comment of my friend on my last posted few questions. It is really surprising for me to feel yoga in a very limited attributes. Peoples usually confused about truth, simplicity and love. I think these are results not the medium. Whatever we perceive in this world are untrue... real love can not be possible before Anandsampragyat Samadhi.
Religion and philosophy must open for each type of spiritual seeker.

Does popularity of yoga is good for mass public to think about? If yes then all ways of propagation is useful. But if not, then again few more question arises.

I need your involvement in this discussion.